सोमवार, 6 जून 2016

आँगन का नीम


आखिर इस बार तय हो ही गया कि नीम के पेड को अब जड़ से ही कटवा दिया जाए  । उस नीम के पेड को, जो आँगन में बीस साल से हमारे आँगन के बीचों-बीच हमारा का पहरेदार और अभिन्न साथी बन कर खडा था । हर मौसम में हमारी दिनचर्या का साक्षी ।
वैसे तो हर साल नवम्बर आते-आते माँ नीम की टहनियों की छँटाई करवा देतीं थी । ऐसा करने से पत्ते झडने का झंझट नही रहता था . और क्योंकि नई टहनियों में फूल नही आते इसलिये निबौलियों के झडने का झंझट भी नही होता था .
हालांकि हमें पेड़ की छँटाई भी अच्छी नहीं लगती थी . कुछ महीनों के लिये पेड़ नंगा हुआ सा उदास खड़ा लगता था लेकिन देर से ही सही, छंटाई के बाद पेड़ फिर से हरा और ज्यादा घना तो होजाता था । लेकिन जड़ से ही कट जाएगा तो फिर आँगन में कहाँ से होगी घनी छाँव ? कहाँ चिडियाँ चहचहाएंगी और कहाँ गिलहरियाँ धमाचौकडी मचाएंगी । सब कुछ उजड़ जाएगा ।
नीम के पेड से हम तीनों भाइयों का विशेष लगाव रहा है । इसलिये भी कि उसे दादी ने अपने हाथों से रोपा था । दादी अब हमारे बीच नही हैं । पर इससे बड़े कारण हैं वे सुख जो हमें नीम के उस हरे-भरे सघन पेड़ से मिलते हैं । सबसे बडा तो यही कि धूप में छतरी का काम देने वाले हमारे इस पेड पर रोज सुबह बेशुमार चिडियाँ आकर किल्लोल करती हैं । पूरा पेड झुनझुने की तरह बज उठता है । हर मौसम में न जाने कितनी अनजान चिडियाँ हमारे पेड पर मेहमान बन कर आतीं हैं । असंख्य गिलहरियाँ इसकी डालियों पर धमाचौकडी मचाए रहतीं है । गिलहरियों से हम तीनों भाइयों की गहरी दोस्ती रही है । वे हमारी एक आवाज पर उतर कर आँगन में आजातीं है । हमारी हथेलियों पर बैठ कर मजे में मूँगफली या चना कुतरतीं हैं । कडी धूप में हमारा पेड पूरे आँगन में छतरी लगाए खडा है । उसके चारों ओर घूमते हुए छिम्मी--दाँव खेलना काफी जटिल व मजेदार होता है । हर साल सावन में हम झूला डाल कर पूरे महीने झूलने का आनन्द लेते हैं । पेड की शाखाओं से झूलने में जो आनन्द है वह पार्क के झूलों में कहाँ ? वहाँ पीगें बढा-बढा कर ऊँची टहनियों से पत्ते तोड कर लाने की प्रतिस्पर्धा भला कहाँ ? और हाँ.. वर्षा बन्द होने के बाद भी जब हवा के हल्के से झोंके से ही आँगन में फिर से बारिश होने लगती है तब यह हमें पेड का कोई जादू सा लगता है ।
सबसे ज्यादा मजेदार है यह कि नीम की बदौलत हमें अक्सर खूबसूरत पतंगें फ्री में मिल जातीं हैं । नीम की टहनियाँ जैसे हमारे लिये ही जाने कहाँ-कहाँ से पतंगों को पास बुला कर उलझा लेतीं हैं कि ,“कहाँ जारही हो उडती उडती पतंगरानी ! यहाँ थोडी देर आराम करलो न ?”... और पतंगें मानो इस प्रस्ताव को स्वीकार कर टहनियों में ही अटक जातीं हैं । बाजार से पतंग खरीदने में कोई पाबन्दी नहीं है पर टहनियों से उतारी गई पतंग का एक अलग ही आनन्द है .  
पहले जब पेड़ की छँटाई भी नहीं करवाई जाती थी ,भर भर झूमर फूल आते थे और उसके बाद निंबौली । फूलों के दिनों में जब हम आँगन में सोते थे , हमारा बिस्तर नीम के छोटे-छोटे फूलों से भर जाता था । हल्की सी सुगन्ध वाले नन्हें फूल पलकों पर ,कानों बालों और कपडों में भर जाते थे । निंबौलियाँ भी हमारे लिये कई तरह के खेल जुटा लातीं थीं । हमारी तराजू के लिये निंबौलियाँ आम या खिरनी का काम करतीं थीं । कभी पेड के नीचे अचानक हमारे सिर पर निबौली गिरती तब हमें कक्षा के शरारती साथियों का ध्यान आता जो ध्यान बँटाने के लिये अक्सर चॅाक का टुकडा फेंक कर मारा करते हैं । और निबौलियों के लिये तोतों की झीनाझपटी भी कितनी मजेदार होती थी ।
अब उधर भैया अपनी नौकरी पर चले गए और इधर माँ ने नीम के पेड को कटवाने का फैसला ले लिया । मैं यही सोच रहा था कि काश इस समय बडे भैया होते तो जरूर कुछ करते ।
उनके होते नीम के पेड के कटवाने का नाम तो बहुत दूर है, मँहगाई की तरह फैलती उसकी टहनियों को छँटवाने का काम भी माँ बडी मुश्किल से करवा पातीं थीं । कितना ही समझाने पर भी कि छँटाई से तो नीम की टहनियाँ और पत्ते ज्यादा घने आएंगे , भैया ठूँठ हुई शाखाओं को देख हर बार माँ से कहते -"माँ तुमने यह बिल्कुल अच्छा नही किया । देखो बेचारी गिलहरियाँ व चिडियाँ कैसी बेघर हुई उदास बैठी हैं । और फिर गर्मियों तक तो पेड घना हो भी नही पाता जब ठंडी छाँव की बेहद जरूरत होती है । जब घना होता है तब तक बारिश आजाती है । माँ अब यह मत कहना कि नीम की छाँव की क्या जरूरत । कूलर जो है । पेड की छाँव की बात निराली होती है । है न मुन्नू । पत्ते छँटवा कर भी मम्मी ने कुछ ठीक नही किया ।"
"एकदम दादाजी बन कर बात करने लगा है ." माँ भैया की बात पर हँस कर रह जातीं ।
मुझे याद है कि भैया ही थे जो माँ के सख्त मना करने के बावजूद गिलहरियों को खिलाने के लिये रसोईघर में से बेखौफ होकर मुट्ठी भर मूँगफलियों के दाने निकाल लाते थे और जब तक खत्म नही कर लेते गिलहरियों को बुलाते ही रहते थे । हमारी नजर में यह एक बडा क्रान्तिकारी कदम था । पर भैया कहते थे कि यह जरूरी है । आखिर खाने की चीजों पर जितना हक हमारा है उतना ही इनका भी है । एक दिन माँ ने जब पोहा बनाने के समय मूँगफली-दाने के डिब्बे को खाली पाया तो खूब नाराज हुईं । भैया को खूब डाँटा पर भैया चुपचाप सुनते रहे । इससे ज्यादा कि माँ ने पोहा बनाना ही रद्द कर दिया ,वे और कुछ नही कर पाईं थीं ।
इसी तरह एक बार माँ ने आँगन में लगी गुलाब की एक झाड़ी उखडवा दी । वह काफी पुरानी तो हो ही गई थी ,और उसकी टहनियों से असुविधा भी होने लगी थी । जब भी उधर से निकलते थे काँटे हाथ-पाँव में लाल लकीर खींच देते थे । पर उस दिन जब भैया ने झाडी को बाहर पड़ी पाया तो बड़े नाराज हुए । साफ कह दिया-- जब तक उस पौधे को दुबारा नही लगाया जाएगा ,मैं खाना भी नही खाऊँगा । माँ ने उसे उखडवाने की सोची भी कैसे । अभी उसमें एक साथ पचास बड़े और एकदम सुर्ख फूल आते थे । मुझे तो वही पौधा चाहिये ...बस.
माँ क्या करतीं । वह उखडी हुई झाडी फिर से क्यारी में रोपनी पड़ी । जब तक उसके पत्ते फिर से नही खिल गए ,कोंपलें नही फूटीं उनका मुँह फूला रहा .
भैया के सामने पेड़ कटने की बात भी हो पाती ?
"माँ , जब केवल छँटाई से काम चलता रहता है तो फिर पेड को जड़ से कटवाने की जरूरत ही क्या है ?"
मैंने भी माँ को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने ने साफ कह दिया कि छंटवाने से बात नही बनती । हर साल वही पहाड़ा रटना पडता है । काटने वाले आदमियों के पीछे फिरो । पत्तों व लकड़ियों का निस्तार करो । चार माह बाद फिर से वही परेशानी कई गुना ज्यादा घनी होकर फैल जाती थी । और हाँ...छँटवाने के नाम पर भी तो कम हाय--तोबा नही मचती . सो एक बार जड़ से कटवाओ और सदा के लिये परेशानियों से मुक्ति पाओ । भला आँगन में कहीं नीम के पेड़ लगाए जाते हैं ?
"लेकिन माँ हमारा आँगन एकदम सूना हो जाएगा । नही ?"
"तुझे आँगन की पडी है मुन्नू ?" माँ रुखाई के साथ बोली---"तुझे मेरी परेशानी नही दिखती ? कैसे दिनभर झाडू ही लगाती रहती हूँ ? कमर झुक गई सफाई करते-करते । इसके कारण कितना कचरा फैला रहता है हर वक्त कि घर घर नही जंगल लगता है । कितनी ही सफाई करो पर जब देखो जहाँ कूडा-कचरा । पतझड़ में पत्ते झरें और पतझड ही क्यों अब तो बारहों महीने पत्ते झरते रहते हैँ .फिर फूल झरें और फिर निबौलियाँ ..। पहले कच्ची निबौलियाँ और फिर पकी निबौलियों की बरसात होती है । हर वक्त आँगन में मक्खियाँ भिनभिनाती रहती हैं । यही नहीं कौए जब चाहे हड्डी या मांस गिरा जाते हैं । छिः...मुँह में ग्रास नही दिया जाता । उधर पडौसी अलग खिच-खिच करते रहते हैं कि उनकी छत और आँगन पत्तों से भरे रहते हैं .पूरा मनहूस पेड़ है यह । माँजी को क्या सूझी जो बीच आँगन में पेड़ लगा गईं वह भी नीम का । लगाना ही था तो चाँदनी ,रातरानी ,हरसिंगार या फिर अनार और अमरूद जैसे पेड लगातीं । लगा दिया यह दरख्त । घर में किसी को बुलाने में भी संकोच होता है ।  मैं क्या जीवनभर बस झाडू ही लगाती रहूँगी ।"
"माँ सफाई के लिये आती तो हैं जस्सी आंटी ।"
"हाँ जस्सी के सुबह--शाम के झाडू लगाने भर से सफाई होजाती है क्या ? पत्ते तो दिनभर झडते हैं । इस पेड के कारण घर में घर जैसा अहसास होता ही नही ।"---माँ ले देकर उसी बात पर आजातीं । अब घर के अहसास में नीम के पेड का क्या दखल है यह तो मैं समझ नही सका पर इतना जान गया कि अब इस निर्णय में बदलाव की कोई गुंजाइश नही है ।
यह भी पहली बार महसूस हुआ कि माँ के भी ऐसे विचार हो सकते हैं जो हम बच्चों को पसन्द न आएं । और यह भी कतई जरूरी नहीं कि माँ हमारी पसन्द का खयाल भी रखे । जैसे कि वो अपनी गुना वाली सहेली को चाहे जब बुला लेतीं हैं और हमें घेर कर बिठा लेतीं है कहतीं हैं —“मुन्नू आंटी को वो वाली पोइम सुनाओ..। ..वो वाला गाना सुनाओ...
वह सब हमें कहाँ अच्छा लगता है । पर माँ कहती है कि अच्छे बच्चे बडों का कहना मानते हैं ."
माँ की परेशानियों को हम समझते थे पर माँ जाने क्यों पेड से होने वाली परेशानियों को तो देखतीं थीं पर उसके लाभों को नजरअन्दाज़ कर देतीं थीं । हमने किताब में पढा था कि ,पेड हमें वह सब देता है जिसे इन्सान कभी नही दे सकता । शुद्ध हवा मिलती है । खासतौर पर नीम से । नीम जैसा ऐण्टीबायोटिक कोई दूसरा नही । उससे वातावरण अच्छा रहता है । गर्मियों में गर्मी से और सर्दियों में सर्दी से बचाता है । आदि..।
इनके साथ एक लाभ और है कि अलग से एक्सरसाइज नहीं करनी पड़ती .घर की सफाई करते करते वह अपने आप हो जाती है .”—पिताजी भी हमारे सुर में सुर मिलाकर कहते थे . तो माँ नाराज होकर कहतीं --
थोड़ी एक्सरसाइज आप भी कर लिया करें . बातें करना तो बहुत आसन है .
पहले हमें पिताजी का भरोसा था . हम समझते थे कि माँ पिताजी से अपना यह फैसला नहीं मनवा सकतीं    
लेकिन इस बार माँ ने अपनी बात को एक नई दिशा दे दी जैसे कोई खतरे की संभावना के कारण रास्ता बदल लेता है । बोलीं---
"चलिये मेरी परेशानियाँ तुम लोगों को नही दिखतीं लेकिन यह भी तो सोचो कि इसकी जडों से आँगन के फर्श में दरारें आने लगीं हैं । कल जडें नींव तक पहुँचेंगी । मकान को हिला कर रख देंगी । और यह भी नही भूलना चाहिये कि पेड बिजली को आकर्षित करते हैं । बरसात में उसका भी खतरा होता है । क्या नहीं ??
माँ की इस बात का किसी पर प्रभाव हुआ या न हुआ पर जाने कैसे पिताजी पर होगया । वैसे तो माँ की बात का असर हमने उन पर कभी होते नहीं देखा था जबकि हम ऐसा चाहते थे लेकिन अब वह असर हुआ जो हमारी समझ में नहीं होना चाहिये था । उन्होंने माँ की इच्छा को तपाक से समर्थन दे दिया---"ठीक है . जो तुम जो ठीक समझो करो ।"
बस माँ खुश । शायद पिताजी को भी नही सूझा कि पेड़ की जड़ें इतनी जल्दी मकान की नींव को नुक्सान नही पहुँचाने वाली । पर हम तो उन्हें नही न समझा सकते थे । बच्चे जो थे । हालाँकि इतने भी छोटे नही कि अपनी बात न कह सकें पर इतने बडे भी नही कि माँ और पिताजी की बातों का विरोध कर सकें ।
कुल मिला कर यह तय होगया कि हमारा प्यारा नीम का पेड अब एक-दो दिन का ही मेहमान है ।
एक दिन जब पिताजी मामाजी से मिलने चले गए सुबह--सुबह दो-तीन आदमी रस्सी कुल्हाडी लेकर आगए । हमें वे बिलकुल कहानी वाले काले राक्षस की तरह लगे ।
वास्तव में पहले तो हमें पूरी उम्मीद थी कि ऐन मौके पर पिताजी का मन बदल जाएगा और वे पेड का काटना रद्द करवा देंगे । पर पिताजी के जाने के बाद हमारी रही-सही उम्मीद खत्म होगई । पेड को काट गिराने की सारी तैयारियाँ हो चुकीं थीं । माँ ने शायद सारी बातें सोच कर ही इतवार का दिन तय किया था । काम का शुरु होना ही थोडा आशंकित करने वाला था । होजाने के बाद तो फिर विरोध का भी कोई अर्थ नही होता ।
हमने देखा कि सुबह की हवा में नीम की टहनियाँ झूम रही हैं, हरे पत्तों पर किरणें नाच रहीं हैं ,खतरे से बेखबर गिलहरियाँ धमाचौकडी मचा रहीं हैं, गौरैया व तोते कल्लोल कर रहे हैं । यह हरी-भरी दुनिया कुछ ही पलों में उजड जाएगी ,और हम सिर्फ सोच-सोच कर दुखी होते रहेंगे ।
"बताओ बहन जी कहाँ से शुरुआत करें । " उन तीनों आदमियों में से एक ने पूछा ।
"रुको भैया ! थोडी देर में अभी बताती हूँ..।"
माँ ऐन मौके पर अपने आप से ही उलझती हुई सी बोली । मुझे उस समय जाने क्यों लगा कि उस समय माँ को नीम के कंच हरे सुन्दर ,झूमते हुए पत्तों का खयाल आ रहा है जो अगले पल कट कर धूल में मिल जाने वाले थे । शायद उन्हें शाखों पर सरपट दौडती गिलहरियों का और चुहलबाजी करते तोतों का खयाल आरहा था । और निश्चित ही उन्हें ऊँची टहनी पर बने कौए के घोंसले का भी खयाल आरहा था । तभी तो उन्होंने उन आदमियों को कुछ देर बैठ कर इन्तजार करने को कहा होगा । वरना वो तो जल्दी से जल्दी पेड का नामोनिशां मिटा देने की बात करतीं रहतीं थीं । इसी मुद्दे पर आकर ही तो मुझे महसूस हुआ था कि माँ से भी हमारा मतभेद हो सकता है । पर उस वक्त माँ जो देरी लगा रही थी मुझे लगा कि जरूर उनका विचार बदल रहा है । माँ के लिये ऐसा सोचना मुझे बडा अच्छा लगा ।
"बहन जी हमारे पास वक्त नही है जल्दी बताओ..।"--दूसरा आदमी बोला । मैं हैरान था । माँ उसकी बात का उत्तर देने की बजाय मुझे जैसे छोटे लडके को बडी महत्त्वपूर्ण बात बता रही थीं ।
" अरे मन्नू तुझे पता है यह नीम का पेड ठीक आशु ( बडे भैया ) की उम्र का है । जब आशु का जन्म हुआ था तभी तुम्हारी दादी ने इसे लगाया था ।"
"तो मैं क्या करूँ ?" --मैं जानबूझ कर कुछ रुखाई से बोला । कहना तो चाहता था कि यह सब मुझे सुनाना तो बेकार है जबकि आपने पेड काटने वाले लोगों को बुला ही लिया है , पर मेरे भावों को महसूस किये बिना वे अपने आप से ही कहतीं रहीं---
"एक पेड को लगाने व पालने में सचमुच कितना समय लगता है ,जबकि उसे कुछ ही पलों में काट गिराया जासकता है । है न मुन्नू ।"
मुझे क्या पता ?” –मुझे माँ की यह दार्शनिकता बहुत अखर रही थी . पेड़ को कटवा भी रहीं हैं और ऐसा दिखावा भी कर रहीं हैं मानो पेड़ को कटवाना बहुत बड़ी मजबूरी हो .
"अरे बहन ! जी हमें क्या आज्ञा है । नही कटवाना है तो हम जाते हैं । पूरा दिन बेकार तो नही जाएगा ।" तीसरा आदमी कुछ खीज कर बोला ।
" ठीक है अगर आप लोगों को इतनी जल्दी है तो फिर आज रहने दो । मैं आप लोगों को जल्दी ही किसी दिन बुला लूँगी ।" --माँ ने जल्दी ही उनसे छुटकारा पाने के लहजे में कहा तो मैं मारे खुशी के उछल पडा । क्योंकि मुझे यकीन होगया कि माँ का यह 'किसी दिन ' अब कम से कम इस साल तो नही आएगा . और कि शायद कभी आए ही नहीं....

( कहानी-संग्रह 'अपनी खिड़की से' कुछ परिवर्तनों सहित ) 

मंगलवार, 22 मार्च 2016

ब्लण्डर-मिस्टेक

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"वसन्तलाल सर कौन से हैं यहाँ ?"
टेबलों पर झुके चेहरों की भीड एकदम दरवाजे की ओर मुडी जैसा कि खामोशी के बीच उभरी किसी भी आवाज पर होता है लेकिन चूँकि व्यक्तिवाचक संज्ञा का प्रयोग हुआ था इसलिये वसन्तलाल के अलावा सब तुरन्त टेबलों पर झुक गए और सामने फैली उत्तरपुस्तिका पर उसी तरह नजरें जमा कर हाथ चलाने लगे जैसे चावलों में से कंकड बीनते समय गृहणी सरसरी सी नजर के साथ जल्दी-जल्दी चावल फैलाती समेटती रहती है
यह समय हाईस्कूल हायरसेकेण्डरी प्रमाणपत्र परीक्षा की उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन का था मार्च माह का दो तिहाई हिस्सा बीत चुका था एक दो सप्ताह पहले ही फूलों से लदीं कचनार की टहनियाँ स्कूलों में कक्षाओं की तरह अब सूनी हो चली थीं मूल्यांकन केन्द्र शासकीय सावित्रीबाई कन्या मा वि में मेला जैसा माहौल था एक कमरे के दरवाजे पर आदेश की प्रति लिये अपना कार्ड बनवाने शिक्षकों की लम्बी लाइन लगी थी जैसी स्टेशन की टिकिट खिडकी पर जनरल वालों की लाइन लगी रहती है
इस बार दो बडे संभागों की कापियाँ आई थीं सो मूल्यांकन पूरे महीने चलने वाला था इससे शिक्षकों में खासा उत्साह था उनके लिये कमाने का यह एक अच्छा मौका था वेतन चाहे जितना मिल जाए पर कुछ कमाने जैसा अहसास तो अतिरिक्त आय में ही होता है शिक्षकों की नौकरी में डाक्टर इंजीनियरों की तरह अतिरिक्त कमाई का कोई जरिया नही होता है ,जहाँ से अतिरिक्त आमदनी सदाबहार झरना की तरह झरती रहती है
बस एक मूल्यांकन कार्य ही है जो हर साल पंखा की हवा में बैठे-बैठे पाँच से पच्चीस हजार तक की आय दे जाता है बस कलम घिसनी होती है उसके लिये भी दो-दो रुपए की 'यूज एण्ड थ्रो' वाली कलम ही काम चला देती हैं  
"ये तो 'आँधी के आम' हैं भैया ! जितने बटोर सको बटोर लो " रवीन्द्र कहता है वह इन दिनों सबसे सक्रिय रहता है प्राचार्य से कुछ ऐसा तालमेल है कि जहाँ दूसरे शिक्षकों को पहले स्कूल जाना होता है वहीं रवीन्द्र सीधा मूल्यांकन केन्द्र पर जाता है सबसे पहले आकर बिना एबसेंट वाले बन्डल चुन लेता है और शाम के सात आठ बजे तक अविराम गति से कापियाँ जाँचता रहता है श्यामसिंह ने बताया कि तीस-तीस हजार तक कूट लेता है यह रवीन्द्र
तभी तो महीनों पहले से ही लोग डी. ऑफिस में बैठे कर्ता-धर्ताओं से 'वैल्यूशन' के लिये सिफारिशें लगवा देते हैं उसके लिये विषय-अध्यापन का कम से कम पाँच वर्ष का अनुभव अनिवार्य है जिसका प्रमाणपत्र लाना कोई मुश्किल काम नही है
उस कमरे में इन्टर बोर्ड की हिन्दी की उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन हो रहा था शासकीय अशासकीय ,अनुभवी और अनुभव-हीन (अनुभव प्रमाणपत्र सहित) सभी तरह के परीक्षक पूरी सक्रियता तत्परता से पन्ने पलटते हुए कापियाँ जाँच रहे थे
व्याख्याता वसन्तलाल भी वहाँ परीक्षक के रूप में वहाँ मौजूद था
यों परीक्षा मूल्यांकन--प्रणाली को लेकर वसन्तलाल ज्यादा सन्तुष्ट नही है इसका भुक्तभोगी वह एम..फाइनल की परीक्षा में स्वयं भी रह चुका है हिन्दी साहित्य में आधुनिक काव्य की उसने बहुत ही गहन और व्यापक तैयारी की थी प्रश्नपत्र भी उतना ही अच्छा हुआ लेकिन वह हैरान रह गया जब उसे मात्र पैंतीस प्रतिशत अंक मिले जबकि उसके साथी को जिसने आठवें प्रश्न-पत्र में निबन्ध-लेखन चुना था और 'कृष्ण--काव्य और 'अन्धा-युग' ,शीर्षक पर निबन्ध लिखा था ,सरसठ अंक मिले
"पेपर कैसा गया ?"--वसन्त ने अपने साथी से ,जैसा कि पेपर के बाद अक्सर सभी आपस में पूछते हैं ,पूछा था
"एकदम 'फस्क्लास' "--उसने काफी विश्वास से कहा था----"पूरे सात पृष्ठ का निबन्ध लिख कर आया हूँ "
"अरे वाह ! सात पृष्ठ में ऐसा क्या-क्या लिख दिया ?"
"विषय था ही ऐसा जिसमें लिखने के लिये विस्तार ही विस्तार था सूरदास अन्धे थे कृष्ण उनके इष्ट थे सो सूर सूर तुलसी शशी से जो शुरु किया तो बाललीला राधाकृष्ण का प्रेम गोपियों का विरह , रासलीला सब कुछ बढिया लिख कर आया हूँ .वसन्तलाल ने हैरान होकर साथी को देखा । धर्मवीर भारती की कृति अन्धायुगका तो इसने नाम भी नही लिया “ 
लेकिन उसके साथी को प्रथम श्रेणी के अंक मिले और वसन्त को तृतीय के वह भी केवल उत्तीर्णांक ।उसके दुख और आश्चर्य का पार था. पुनर्मूल्यांकन के लिये आवेदन किया .
"अगर ईमानदारी से मूल्यांकन हो तो कम से कम तीस पैंतीस अंक तो बढेंगे ही "--वसन्त को फूरा विश्वास था लेकिन परिणाम आया—“नो चेंज
एक दो परिचितों ने वसन्त से कहा था--
"तुम हजार--डेढ हजार का इन्तजाम करते तो बीस तीस अंक आराम से बढ जाते " इसके बाद वसंतलाल का अच्छे अंकों के लिए जो उत्साह था वह फिर खत्म ही होगया .और मूल्यांकन की पारदर्शिता से विश्वास भी .
"तुम्हें मूल्यांकन कार्य जरूर करना चाहिये . कम से कम कुछ परीक्षार्थियों को तो न्याय मिलेगा ही वसंत भाई।""" --मित्रों ने सुझाया और इस तरह व्याख्याता वसन्तलाल अब उस मूल्यांकन कक्ष में मौजूद था उसे आश्चर्य हुआ कि वहाँ कितने ही परीक्षक ऐसे हैं जिन्होंने पाठ्यपुस्तक खोल कर नही देखी उन्हें यह नही पता कि वापसी कहानी किसने लिखी है या रामचन्द्र शुक्ल निबन्धकार हैं या कवि कि प्रबन्ध और मुक्तक में क्या अन्तर है मिसेज भटनागर को सर्वनाम और विशेषण के बारे में कुछ भी नही मालूम तो ,दिनकर सोनी अपने साथी से पूछ रहे थे कि अनुप्रास में वर्ण की आवृत्ति होती है या शब्द की दुबे जी वर्षों गणित के शिक्षक रहे पदोन्नति के लिये सीरीज पढ-पढ कर तीन साल पहले ही तो उन्होंने हिन्दी में एम. किया था भाग्य से उसी साल हिन्दी व्याख्याता की पदोन्नति भी मिल गई इन्टर की हिन्दी तो उन्हें इसी साल ही पढाने मिली है मूलतः वे गणित के शिक्षक हैं बाद में वे गणित की कापियाँ भी चैक करेंगे मिसेज अष्ठाना उपसर्ग और प्रत्यय का अन्तर भूल रही थीं तो त्रिपाठी जी रामचन्द्रिका को भक्तिकाल की रचना मानते हुए रीतिकाल के उत्तर पर जीरो दिए जारहे हैं
अभी कल ही एक सवाल पर अटक गए थे सब लोग सवाल था "मेरा बेटा बुद्धिमान है" ,का निषेध वाचक वाक्य क्या होगा
"होगा क्या !"..यही कि "मेरा बेटा मूर्ख नही है " मेमोरेंडम में ऐसा ही दिया है
"सही है ?"
"सही ही होगा जब 'मेमोरेंडम' में दिया है 'मेमोरेंडम' यानी आदर्श उत्तर अपन को मेमोरेंडम के अनुसार ही उत्तर जाँचने होंगे---डिप्टी हैड का यही निर्देश है "
वसन्तलाल के कान और ध्यान दोनों अपनी कापी से तिलचट्टे की तरह उचट कर उनकी मेज पर जा लगे जुबान में खुजली होने लगी हद होगई गाइडों से पढाओ मेमोरेंडम से कापी जाँचो सब कितना आसान अब जरूरत ही क्या है विषय-शिक्षक की  
"सर मेमोरेंडम में उत्तर गलत भी हो सकता है " वसन्तलाल ने बडे विश्वास के साथ मेमोरेंडम की विश्वसनीयता पर सवाल लगा दिया मेंमोरेंडम..जिसे माने हुए विद्वान बनाते हैं , पूरे प्रान्त के लिये
"हें !!!" .अधिकांश शिक्षक चौंक पडे मेमोरेंडम को गलत बताने वाले ये महाशय आखिर हैं कौन  
"मेरा बेटा बुद्धिमान है", का नकारात्मक "मेरा बेटा मूर्ख नही है" 'कैसे होसकता है !"
"मेमोरेंडम बनाने वाले क्या घस-खुदरे हैं ?"--एक शिक्षक ने व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट से वसन्तलाल को देखा इसे कहते हैं 'आधी रोटी पर दाल लेना '
"भाई मैंने यह तो नही कहा मैं तो यह बता रहा हूँ कि इसका नकारात्मक ,'मेरा बेटा बुद्धिमान नही है' ,ही होगा "
"लेकिन उसमें अर्थ बदले बिना नेगेटिव बनाना है समझो वसन्तलाल जी पेपर को ध्यान से देखो "--एक और बुद्धिमान लगने वाले शिक्षक ने वसन्तलाल का ध्यान खींचा तो वह और भी जोश में आगया ---"जी सर लेकिन अब्बल तो पेपर में ऐसा निर्देश है नही सीधा निर्देश है कि वाक्य का नकारात्मक बनाना है फिर भी ऐसा होता तो सर 'बुद्धिमान होने' 'मूर्ख होने' में अन्तर है वैसा ही जैसा 'अच्छा होने' 'बुरा होने' में है "
"सो कैसे ?"
"ऐसे कि कोई बुरा नही है इसका अर्थ यह भी नही कि वह अच्छा है फूल में सुगन्ध नही है तो इसका अर्थ यह नही कि उसमें दुर्गन्ध है "
"अर् रे यार ! अच्छा है या बुरा है काहे को दिमाग खपा रहे हो यहाँ कोई ज्ञान-प्रतियोगिता थोडी हो रही है "--एक शिक्षक इस बहस से उकता कर बोला उसे गुस्सा के साथ-साथ तरस भी रहा था लोग ज्यादा से ज्यादा कापियाँ जाँचने में मगन थे और ये महाशय काम छोड विद्वत्ता झाड रहे हैं कौन पूछता है आजकल ऐसे किताबी केचुओं को
"सर जी, कापी चैक करो क्यों उलझे हो फालतू की बहस में ?" राजीव गुप्ता ने बुजुर्गपन दिखाया 
डिप्टी हैड राजीव एक प्राइवेट स्कूल में व्याख्याता है और पैंतीस साल की उम्र में ही पचपन का लगता है मटिया रंग धँसे हुए गाल पहली बारिश में ही सडक पर हुए गड्ढों की याद दिलाते हैं एक ही सफारी सूट है जो हाथ-पैरों से तो कागभगौडा को पहनाया हुआ लगता है लेकिन आँखों में दुनियादारी के अनुभव का तालाब लहराता रहता है
वह इस तरह की बहसों को वक्त की बरबादी मानता है समय का सही उपयोग तो यह है कि ज्यादा से ज्यादा कापियाँ निपटाई जाएं गणना क्वान्टिटी की होती है क्वालिटी की नही . जिसके वैल्यूअर जितनी ज्यादा कापियाँ चैक करेंगे उतना ही लाभ होगा डिप्टी हैड को यही कारण है कि शुरु में चैक की गईं चार--पाँच कापियों को खुद देखकर उनका नम्बर अपनी नोटबुक लिख लेता है वैल्यूअर्स को यह मूक निर्देश रहता है कि कुछ कापियाँ जो डिप्टी के साथ हैड वैल्यूअर्स तक देखी जातीं हैं ध्यान से चैक करें बाकी तो बस जाँचने में रफ्तार का ध्यान रखें बीच-बीच में वह शिक्षकों को जल्दी हाथ चलाओजैसे निर्देश भी दे देता था ठीक वैसे ही जैसे गेहूँ की कटाई के समय मालिक मजदूरों को कहता है
"यह भी तो एक कटाई ही है"--वसन्तलाल परीक्षा मूल्यांकन के बारे में कहता है पाठ्यक्रम रूपी फसल की कटाई जुलाई से पाठ्यक्रम की बोनी होती है विद्यार्थियों के दिमाग की जमीन में फरवरी तक फसल पककर तैयार होजाती है शिक्षक-परीक्षक परीक्षाओं के हँसियों और मूल्यांकन की मशीन से परिणाम का गल्ला इकट्ठा करते है ऐसी अनूठी कल्पना पर एक-दो मित्रों ने वसन्तलाल की खूब पीठ ठोकी थी बोले --"तू तो यार लेखक बन जा ।"
 गुप्ता निर्णायक समापक लहजे में कहा--- "भई कायदा तो यह है कि मेमोरेंडम के उत्तर को ही नम्बर देने हैं ऐसे निर्देश हैं हमारे पास आगे तुम जानो तुम्हारा काम हाँ एक गलती पर दस रुपए कटेंगे सोचलो कि मेमोरेंडम के अनुसार नम्बर देना है कि नही "

"अरे सर जी ,मैंने पूछा है यहाँ वसन्तलाल श्रीवास्तव कौन से है "---जबाब मिलने पर चपरासी कुछ तल्ख होकर चिल्लाया गर्मी के मारे पसीना-पसीना वैसे ही हो रहा था
"मैं हूँ वसन्तलाल अपनी बहस की सफलता का आनन्द लेते हुए बडे आत्मविश्वास से भरा था पचास शिक्षकों के बीच कोई उसकी बात को नकार नही पाया  
यों अप्रत्याशित रूप से कोई जब वसन्तलाल को पुकारता है तो उसके दिमाग में अनायास ही कुछ कल्पनाएं उग आतीं हैं रातरानी के फूल जैसी कल्पनाएं ,जैसे कि संभव है कि विभाग द्वारा गोपनीय रूप से शिक्षकों के कार्य का आकलन किया जा रहा हो ,किसी नेक-नीयत के तहत पहली बार अच्छाइयाँ तलाशने के लिये स्टिंग-आपरेशन किया जारहा हो और चुपचाप कक्षाओं में कैमरे लगा दिेये गए हों   तब निश्चित ही वसन्तलाल की कार्यनिष्ठा ,और ईमानदारी जो अक्सर नजरअन्दाज की जाती रही है ,सबके सामने जाएगी कितना अच्छा हो कि गोपनीय रूप से लोगों के काले चिट्ठे उजागर करने की बजाय अच्छे कामों को उजागर किया जाय तो लोगों में अच्छाई के प्रति विश्वास पैदा हो सशक्त हो अच्छाइयाँ बढेंगी तो बुराइयाँ स्वतः ही कम होती जाएंगी
यह भी संभव है कि उसकी किसी कहानी को रमाकान्त स्मृति जैसे पुरस्कार के लिये चुन लिया गया हो और कोई स्थानीय पत्रकार उसे कुछ पूछने चला आया हो हालाँकि वे रातरानी के फूल यथार्थ की धूप के साथ ही धराशायी हो जाते हैं वह तुरन्त अपना सिर झटक देता है---धत् एकदम पगला गया है वसन्तलाल . शेखचिल्ली की तरह हल्दी की एक गाँठ रख कर पंसारी बनने का सपना धत्...
वैसे भी चपरासी जिस निस्संगता कठोरता के साथ पुकार रहा था , ऐसी  चिडिया सी कोई कोमल कल्पना मन के आँगन में दाना चुगते नही रह सकती थी
"हाँ मैं हूँ वसन्तलाल क्या बात है भाई ?"  
"आपको शर्मा सर बुला रहे हैं आठ नम्बर कमरा में जल्दी आना "
शर्मा सर ,यानी एस के शर्मा यानी मुख्य परीक्षक मुख्य परीक्षक ही नही डी साहब का दाहिना ( बाँया नही ) हाथ यानी जिले भर के शिक्षकों से पानी मँगवा सकने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति उप-मुख्य-परीक्षक राजीव गुप्ता वैल्यूशन की सारी रिपोर्ट शर्मा जी को देता है
"मुझे ?? भला मुझसे उन्हें क्या काम हो सकता है ?"
'अधिकारी ने क्यों बुलाया है ?'
ऐसे कर्मचारी के मन में ,जो तो कोई बडे लेबल का आदमी होता है उसकी किन्ही ऊँची पहुँचवालों से कोई जान-पहचान होती है और ना ही धनबल का प्रभाव साथ होता है और वह सिर्फ काम करने वेतन पाने के लिये नौकरी करता है , उठता यह सामान्य सा सवाल देखा जाय तो आशंका को ही जन्म देता है क्योंकि अधिकारी प्रायः उसे उसकी कोई गलती बताने के लिये ही बुलाता है यह बात अलग है कि वसन्तलाल को ऐसी आशंका नही हुई
फिर मूल्यांकन भी वह औरों से तो बेहतर ही कर रहा है आशंका किस बात की
उसने कापियों का आधा जँचा बन्डल रवीन्द्र को सम्हलाया और आठ नम्बर वाले कक्ष में जा पहुँचा मुख्य-परीक्षक (हैड वैल्यूअर ) श्री एस के शर्मा पचास पार के ,दुनियादारी में स्नातकोत्तर ,तमाम अनुभवों में खेले खाए ,नीम की गोली को शहद में लपेट कर देने व्यक्ति हैं सिर पर बालों का कुछ ऐसा आकार है कि माथे की तरफ भारत के नक्शे का दक्षिणी छोर नजर आता है आँखें छोटीं हैं पर उनमें जैसे ऐक्सरे मशीन फिट है दाँतों के बीच की सन्धि हँसी में दरार सी पैदा करती है आवाज ऐसी मानो खुरदरे फर्श पर कोई खाट घसीट रहा हो माथे पर रोली की बिन्दी ,और मोबाइल में महामृत्युंजय के श्लोक की रिंगटोन उन्हें पक्का आस्तिक साबित करती है काठी इकहरी है पर हल्का सा पेट निकल आया है जो शरीर श्रम की बजाय बैठे-बैठे दिमाग चलाने का प्रतीक है हर जमुहाई या गहरी साँस पर हे प्रभू या हरे कृष्ण कहना कभी नही भूलते बीच-बीच में बेसुरा ही सही किसी किसी भजन या चौपाई की पंक्ति गाते रहते हैं इससे उनकी प्रतिष्ठा सम्मान अपनी जगह अटल हैं ऐसा आचरण व्यक्ति के धार्मिक ,ईमानदार और सच्चरित्र होने का प्रमाण माना जाता है
"सर आपने मुझे बुलाया ?"
"हाँ ,वसन्तलाल आप ही है शासकीय बालक .मा.वि.लाला का बाजार से ?"
"जी सर "
"सर जी पहली बार 'बैल्यूसन' कर रहे हैं शायद अभी आपको इसका अनुभव नही है
"क्या हुआ सर ? कुछ गलत होगया ..?"--वसन्तलाल के कान खडे हुए
"कुछ नही बहुत कुछ..
क्या गलती हुई ,बताइये तो ..
गलती एक हो तो बताऊँ.."
"एक एक करके ही बता दीजिये "
वसन्तलाल के मन में धोंकनी सी चलने लगी ,जो कोयलों की दबी आग को सुलगाने के काम आती है
"बसन्तलाल जी !, यह बेहद महत्त्वपूर्ण काम है कोई चलताऊ नही ध्यान रखना पडता है कि रिजल्ट भी डाउन हो और बच्चों का अहित भी हो आप जरा सोच-समझ के साथ कापी चैक करिये
"कैसे सर ? कापी चैक करने में मैंने भरसक सावधानी बरती है "---वसन्त हैरान हुआ
"इतनी सावधानी की जरूरत नही है वसन्त साहब इधर देखिये बच्चे ने पूरी कापी भरी है सप्लीमेंट्री भी लगी है लिखावट कितनी साफ सुथरी है इसे फेल कैसे कर दिया पहली और बडी गलती तो यही है इतने साल होगए पढाते-पढाते फिर भी...?" 
"शर्मा जी "---वसन्तलाल के भीतर गरम पानी पड़ गए कीडे सा कुछ तिलमिलाया---"उसने सुन्दर और साफ जरूर लिखा है ,कापी भी भरी है लेकिन उत्तर तो बडी बात है आप एक वाक्य ही सही और पूरा पढ कर बता दीजिये केवल अक्षर-समूह शब्द नही बनते और ना ही शब्द--समूह वाक्य गलत ही सही पर एक मतलब तो निकलना चाहिये वाक्य का "
"आप तो बेकार ही इतनी खींचतान करते हैं बसन्तलाल जी पता है बोर्ड में कितनी थू थू होती है शिक्षा-विभाग के रिजल्ट पर ! प्राचार्यों विषय शिक्षकों की वेतन वृद्धियाँ रुक जातीं हैं इस तरह कापियाँ जाँचने बैठे तो होगया वैल्यूशन बन गया रिजल्ट जरा यह भी तो देखो कि कुछ लिखा तो है बच्चे ने लिखना जानता तो है सर जी आपकी कलम से किसी का भला होता है तो क्या जाता है चलाने में ?"
"भलाsss"---वसन्तलाल ने विस्मय और खेद सहित शर्माजी को देखा इसे भला करना कहा जाता है ? उचित होने पर दिल खोल कर 'भला' करने में तो वसन्तलाल कभी पीछे नही रहता उसे याद है जब वह मिडिल बोर्ड की हिन्दी की कापियाँ जाँच रहा था एक छात्र की कापी ने उसे जैसे बाँध लिया था 95% अंक हिन्दी में आए थे वह भी तब जब तीन अंकों का एक प्रश्न छूट गया था वसन्तलाल ने तीन बार पूरी कापी देखी ,कही कोई गलती नही कि एक दो अंक और कम करे व्याख्या में सन्दर्भ प्रसंग और सटीक भावार्थ के साथ-साथ विशिष्ट में अलंकार रस और भाषा-वैशिष्ट्य तक लिखा था उस पर सुन्दर साफ लिखावट कापी ने मन मोह लिया वसन्तलाल का
हिन्दी में अगर इतने अच्छे अंक हैं तो बेशक बाकी सभी विषयों में अच्छे ही होंगे लेकिन पता चला कि बाकी सभी विषयों में औसत अंक ही थे
"इसकी सभी कापियों को जरा फिर से देखो यार प्लीज..." उसने साथियों से आग्रह किया
"क्या बात है वसन्तलाल ! इसकी कोई खास सिफारिश आई है क्या ?" एक साथी आँख दबा कर मुस्कराया था
"अरे भाई ! पहले देखो तो सही " वसन्त के आग्रह पर वे कापियाँ फिर से देखी गईं और तब सब चकित थे हर विषय में उसके अंक बानवे से ऊपर ही निकले थे . लेकिन यहाँ तो...
"सर अजीब है हमारा यह परमार्थ का पैमाना इस तरह क्या भला होगा छात्र का !"-वसन्तलाल ने शर्मा जी को समझाने की कोशिश की पर शर्मा जी तो पहले ही सीखे-समझे हुए थे सो वसन्तलाल की सारी समझ पर सीधी चोट करते हुए कहा --   
"इस मामले में आप मेरी बात नही समझेंगे , यह मैं जानता हूँ लेकिन मैंने तो एक दूसरी ही और भी बड़ी गलती को सुधारने के लिये बुलाया है कि आपको 
वसन्तलाल फिर हैरान . मूल्यांकन में सबसे बडी गलती तो यही हो सकती है कि परीक्षार्थी के सही उत्तर को उचित अंक मिलें या फिर अनुचित या निर्धारित अंकों से ज्यादा अंक दे दिये हों पहली गलती तो वसन्तलाल से नही हो सकती और दूसरी को ये लोग गलती नही मानते रिजल्ट-सीट टोटल सब पहले ही राजीव गुप्ता ने चैक कर लिया है तो फिर बडी गलती और क्या होसकती है वसन्तलाल और भी घने असमंजस में डूब गया
"यही तो "--शर्मा जी व्यंग्य भरी मुस्कान के साथ बोले---"आपको लगता है कि आप सब कुछ जानते हैं पर वसन्तलाल जी बहुत सारी बातें हैं जो आपको सीखनी हैं "
"सर पहेलियाँ बुझाएं ठीक से बताइये कि मैंने ऐसी क्या गलती की है मैं उसे जरूर सुधारना चाहूँगा "
"अरे हद्द होगई जिस गलती पर सबसे पहले नजर पडती है ,आपको समझ भी नही आरही "--शर्मा जी तरस खाने वाली नजर से देखते हुए बोले---"आपने कापी के ऊपर की टेबल में अंक तो भरे ही नही हैं जो सबसे ज्यादा जरूरी हैं "
ओह यह है सबसे बडी गलती ! वसन्तलाल का मन हुआ कि सब छोड-छाड कर भाग जाए कहीं टेबल यानी अंक-तालिका , उत्तर पुस्तिका के मुखपृष्ठ पर ही प्रश्न क्रमांक और उसपर दिये अंकों के लिये बनी होती है अन्दर पृष्ठों में दिये अंक उसमें भी भरने होते हैं उनका योग अन्दर पृष्ठों के अंकों के योग से मिलना चाहिये वसन्तलाल ने अन्दर के पृष्ठों का योग तो ऊपर कापियों पर रख दिया बस तालिका में अंक नही भरे इतनी सी बात को इतने खौफनाक तरीके से बता रहे हैं ये एस के शर्मा जी ...
"यह छोटी मोटी बात नही है वसन्तलाल जी --शर्मा जी गुरु गंभीर वाणी में कह रहे थे--- आप इतने सीनियर हैं वैल-क्वालिफाइड हैं मेरी तो समझ में ही नही रहा कि आपने ऐसी 'ब्लण्डर मिस्टेक' कर कैसे दी "
वसन्तलाल और भी हैरान अवाक् ब्लण्डर मिस्टेक ?
'ब्लण्डर मिस्टेक' ..यानी गंभीर और मूर्खता भरी गलती ? सिर्फ अंकतालिका में अंक चढाना ?? 
गलती है लेकिन क्या इतनी बड़ी गलती है ...वसन्तलाल चकित..
अन्दर कुछ खौल सा रहा था मन हुआ कि पूछे ,शर्माजी आप जानते भी हैं कि क्या होती है यह ब्लण्डर मिस्टेक ? ईमानदारी और गहराई से देखा जाय तो क्या हमारी मौजूदा पूरी शिक्षा--व्यवस्था ही अपने आप में ब्लण्डर मिस्टेक नही है ? जिन्हें ठीक से हिन्दी पढनी नही आती (विषय ज्ञान और अध्यापन की बात तो बाद की है ) शुद्ध वाक्य बनाना नही आता ,भाषा व्याकरण से जिनका परिचय नही है उन्हें शिक्षक बना देना ही क्या सबसे बडी 'मिस्टेक' नही है ? बहुत सारे शिक्षक जो योग्य भी हैं बच्चों को पढाना भी चाहते हैं उन्हें तमाम जानकारियों ,व्यर्थ के प्रशिक्षणों और मध्याह्न भोजन में ऐसा उलझा दिया है कि अध्यापन तो पिछवाडे किसी गड्ढे में चला जाता है । क्या यह बड़ी गलती नही है .
शुरुआत से देखें तो पहली कक्षा से आठवीं तक तो पढाई को गंभीरता से लिया जाता है ही परीक्षा को आठवीं कक्षा तक उत्तीर्ण का प्रतिशत सौ प्रतिशत ही रखा जाता है क्योंकि अगर कोई छात्र अनुत्तीर्ण होता है तो उसे तब तक पढाने परीक्षा लेने का प्रावधान है जब तक कि वह उत्तीर्ण हो जाए शिक्षक सोचते हैं कि जब अन्ततः पास करना ही है तो पहले ही क्यों करदें परिणामतः नवमी क्यों बारहवीं तक के छात्रों को सही मात्रा अनुस्वर तक का ज्ञान नही होता उनके लिये दिन और दीन या चिता और चीता में कोई अन्तर नही है
बारहवीं तक के अधिकांश छात्र सही वाक्य लिखना नही जानते परीक्षाओं का यह हाल है कि इधर प्रवेश बन्द नही हो पाते और पढाई में निरन्तरता भी नही पाती कि परीक्षा कक्ष से तिमाही के पेपर बनाने का आदेश जारी होजाता है कम से कम चार इकाइयों से तिमाही का परिणाम घोषित करने के बाद ठीक से कक्षाएं लगनी शुरु होतीं हैं कि छमाही परीक्षाएं फिर प्री-बोर्ड.. उस पर मन्थली टेस्ट की रिपोर्ट भी चाहिये बिना पढाई के ही लगातार परीक्षाएं...बिना सही लिखे ही अच्छा शानदार परीक्षा परिणाम रेत पर लीपने जैसा झूठा और आडम्बर भरा ? एक पूरी पीढी बिना पढे ही बडी होरही है हाथ में डिग्रियाँ लिये कहाँ से शुरु हो रही है यह 'मिस्टेक' ? विभाग अनजान तो नही है इस स्थिति से और यहाँ सिर्फ तालिका में अंक भरने पर ही ....
पिछले साल दैनिक-भास्कर में निकला था कि अगर छात्र को लिखता है या मात्राओं की गलती करता है विराम-चिह्न नही लगाता है तो उसके नम्बर नही काटे जाएं क्या वे नही जानते कि इससे क्या क्या अनर्थ हो सकते हैं क्या उन्हें नही पता कि "रुको, मत मारो " और "रुको मत ,मारो " के बीच पूरी जिन्दगी है 'अजित' और 'अजीत' में जमीन आसमान जैसा अन्तर है 'कहा' और 'कहाँ' तथा 'स्वगत' और 'स्वागत' में ,'सुरभि' और 'सुरभी' तथा 'बात' और 'वात' में कोई साम्य ही नही है पर अन्धेर नगरी चौपट राजा वाली बात क्या यह ब्लण्डर-मिस्टेक नही है ?
क्या तो विभाग और क्या अधिकारी सबका सारा ध्यान केवल परीक्षाओं पर रहता है पढाई हो या हो परीक्षा जरूर होती है और अच्छा परिणाम भी फिर सही मूल्यांकन की तो बात ही कहाँ परीक्षक लोग नोट गिनने वाली मशीन की तरह पन्ने पलटते हुए या कापी को बिना देखे ही अंकों को रेवडी की तरह बाँट रहे हैं परीक्षकों ,उप-परीक्षकों और मुख्य परीक्षकों और तो और केन्द्र प्रभारी के लिये भी मूल्यांकन की सार्थकता अधिकाधिक कापियाँ जाँचने में है उत्तरपुस्तिका किसी के अध्ययन की कसौटी नही ,सिर्फ 'माल' होता है माल जो जेब, जुबान और पेट को तृप्ति देता है एक कापी दस रुपए की दो बण्डल होगए तो छह सौ रुपए टन्न टी के पचास रुपए और आने-जाने का खरचा रोज का बिल कम से कम आठ सौ रवीन्द्र यही तो कहता है कि, "ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नही 'वैल्यूशन' का एक ही फंडा है कि बहुत खराब और बहुत अच्छी कापी को थोडे ध्यान से देखलो बाकी आँख बन्द कर ऐवरेज देते चलो जिसके पैंतीस आरहे हों उसे चालीस दे दोगे और फेल वाले को पासकर दोगे तो वह पुनर्मूल्यांकन थोडे करवाएगा जरा कलम चलाने से किसी का भला होता है तो हमारा क्या घिस जाएगा "
उस भलाई का परिणाम ही तो है कि बारहवीं उत्तीर्ण छात्र एक आवेदन पत्र लिखने में दस गलतियाँ करता है लोकल चैनलों पर समाचार-वाचन हो ,पोस्टर हों या अखबार ,भाषा की गंभीर गलतियाँ सामान्य होगईं हैं
पूरा सही पर यह तस्वीर का एक बडा पहलू है अंकों की गाडी में ही पूरी शिक्षा व्यवस्था सफर कर रही है सब जानते हैं कि मूल्यांकन फर्जी हो रहा है अंक झूठे हैं परिणाम झूठा है लेकिन उत्तर-पुस्तिका की अंक-तालिका भरने पर इतना हंगामा..? 'ब्लण्डर-मिस्टेक' ??
"क्या सोचने लगे वसन्तलाल ? कि गलती को गलती मानें या नही "
"शर्माजी गलती तो हुई है लेकिन इतनी भी बड़ी या गंभीर नहीं कि ...पर एक दूसरी सोच के कारण मेरा इस पर ध्यान नहीं गया दरअसल जिस तरह लोग दो घंटे में दो-दो बण्डल जाँच रहे थे और राजीव गुप्ता जी बीच-बीच में काम फटाफट निपटाने का और सबको पासकरने का निर्देश दिये जा रहे थे तो मैंने सोचा कि..."
" कि तालिका भर कर क्या करेंगे "---शर्मा ने बात को बीच में ही लपक लिया---"क्योंकि यहाँ तो किसी को कुछ दिखाई नही देता आपके सिवा सब बेवकूफ हैं तभी तो आपने मेमोरेंडम को ही गलत बता दिया वसन्त साहब आपको लगता है कि आप जो सोचते हैं ,सही सोचते हैं तो इस गलतफहमी को जितनी जल्दी हो दूर करलो "
"हद होती है सर जी, औवरकौन्फीडेंस की आपकी जानकारी के लिये बतादूँ कि केन्द्र पर इतने सारे वैल्यूअर्स हैं किसी ने ऐसी गलती नही की त्रिपाठी ,अष्ठाना, दिनकर सबने तालिकाएं भरी हैं काम में सही जरूरी बातों का ध्यान तो रहना चाहिये वसन्तलाल मूक श्रोता बना सिर्फ यह सोच रहा था कि शर्माजी इतने व्यक्तिगत क्यों होरहे हैं अपमान करने में क्या इसलिये कि वह दूसरे लोगों से अलग सोचता है ? भीड के साथ नही चलता ? गलत बात को काट देता है ? दूसरे लोगों की तरह चाय बिस्किट का ऑफर नही देता ?
इतने में 'क्या हुआ?, क्या हुआ ?' कहते कुछ वरिष्ठ-कनिष्ठ व्याख्याता और शिक्षक भी आगए हालांकि वे यह जानकर ही आए थे कि शर्मा जी ने वसन्तलाल की कोई बडी गलती पकडी है ,उसी वसन्तलाल की जो बहुत ज्ञान बघार रहा था ऐसे किसी व्यक्ति की गलती पकड में आना एक सुखद मनोरंजन तो होता ही है ,स्वयं के लिये एक उच्चता, स्वच्छता और सुरक्षा की अनुभूति लाता है
"अरे क्या हुआ शर्मा जी ?"
शर्माजी ने पूरी बात क्या बताई ,सबने आश्चर्य के साथ वसन्तलाल को देखा
"अरे सर ऐसी गलती तो कोई बच्चा भी नही करेगा "
"वसन्त सर तो इतने ज्ञानवान हैं कैसे कर बैठे ऐसी भूल !"
"अरे ! वसन्तलाल जी आप तो हमें ही सिखा रहे थे आपसे ऐसी गलती की उम्मीद नही थी "
"इतने 'इम्पोर्टेंट' काम में ऐसी 'लैतलाली' ( बेपरवाही ) तो नही ही होनी चाहिये
"पर वे इसे गलती मान भी तो नही रहे हैं ?"
"नही साब गलती की है तो माननी तो पडेगी ही इस पर तो लोग सस्पेंड होते देखे गए हैं "---दो-तीन लोग एक साथ बोले हर कोई ऐसे प्रदर्शित कर रहा था मानो वसन्तलाल रेप के आरोप में पकडा गया हो   
शर्मा जी कहे जारहे थे---"तीस-पैंतीस साल होगए नौकरी में आपकी  विद्वानता को कोई नही देखेगा पर कापी के पहले पेज पर ही नजर सबकी जाएगी अन्दर आपने क्या किया है इससे कोई मतलब नही आपकी इस गलती की लपेट में मुझे भी लिया जाएगा ऐसे कार्यों में तुरन्त सस्पेंशन के औडर होते हैं इसलिये सर आप तालिकाएं भर दें "
"क्या !!--वसन्तलाल को झटका सा लगा "साथ-साथ तो तालिका बडी आसानी से भर जाते हैं लेकिन अब तो काफी मुश्किल है प्रश्न क्रमांक देख कर उसके अंक ऊपर तालिका में भरना....शर्माजी यह तो संभव नही है
अरे प्रश्न देखने की जरूरत नही है .बस एक नजर में टोटल सही दिखना चाहिये .
वसन्तलाल का दिमाग एक बार फिर गरम हुआ . बाहर सिर्फ दिखना भर चाहिये . सही हो या न हो .इस तरह काम करने में वसन्तलाल पीछे ही रहता है इसीलिये वह शिक्षक डायरी भी नियमित नही भर पाता . क्योंकि वास्तव में डायरी केवल दिखाने के लिये होती है . वसन्तलाल जितना कक्षा में पढ़ाता है वह डायरी में कैसे आ सकता है .इस दृष्टि से वह एक असफल कर्मचारी है .तो बना रहे ..
इस कार्य को तो कोई भी कर देगा शर्मा जी .
यह तो आपको ही करना पड़ेगा . सीधे सस्पेंड किया जा रहा है ऐसी गलतियों पर ..
अब सस्पेंशन टर्मिनेशन जो भी हो मुझसे तो नही होगा "
"करना तो पडेगा सर यह तो बहुत जरूरी काम है "---एक शिक्षक ने बीच में आकर कहा
"जरूरी है तो आप करदें और मेरी कापियों का पैसा भी आप ही ले लें "वसन्तलाल का दिमाग अब पूरी तरह असहयोग पर उतर आया .
आपको इसका जबाब देना होगा .
आप जब भी माँगेंगे मैं भेज दूँगा .--वसन्तलाल ने कहा और तेजी से बाहर निकल गया .शर्मा जी मुंह खोले ही खड़े रह गए .
अब क्या होगा शर्मा जी?”
होना क्या है . मूल्यांकित कापियाँ हजारों लाखों हैं . कौन देखता है जब तक कि परीक्षार्थी खुद देखना चाहे ..सब रद्दी हैं  .लेकिन हाँ भले ही विज्ञान के शिक्षक से हिंदी की कॉपियां जाँचवानी पड़ें लेकिन ऐसे लोगों को मूल्यांकन के लिये बुलाना बेकार ही सिरदर्द माँग लेना है .

वसंतलाल को भले ही इसकी परवाह नहीं है पर यह बात शहर के शिक्षा-जगत में एक इतिहास बन गई है कि वसंतलाल ने कोई बहुत बड़ी गलती करदी है इसलिए उसे मूल्यांकन कार्य से वंचित किया गया है ----------------------------------------.